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मन की पीड़ा.........
समझदारी, हंसमुख स्वाभाव सभी कुछ तो था विवेक में । दो बहनों का इकलौता भाई माँ बाप का दुलारा। बहनो की शादी उसने अच्छा घर-बार देख कर करवा दी और बस अब घर पर वो और माता-पिता ही साथ रहते। विवेक बहुत मस्तमौला था बहनो की शादी के बाद ज़िम्मेदारी भी कम हो गई इसलिए वो देर शाम तक दोस्तों के बीच बैठ जाया करता। इधर उसकी माँ गायत्री देवी परेशान हो जाती और गली में खेलते हर किसी बच्चे से विवेक के बारे में पूछने लगती। ऐसा नहीं था कि उसे अपने माता-पिता की परवाह नहीं थी पर जब से बहने ब्याही थीं उसे घर खाने को दौड़ता था ।
अब बच्चियों के जाने के बाद माँ के लिए विवेक का ही सहारा था, जब तक वे दोनों थी वो अपनी दिन भर की बातें उनसे कर लिया करती पर अब तो उसकी बातें सुनने के लिए विवेक ही बचा था । पिताजी गोविन्द लाल जी भी अब सेवानिवृत हो गए थे और दिन भर गाँव चौपाल में बैठे हुक्के का मज़ा लेते हुए अपने दोस्तों के साथ पुरानी यादें ताज़ा करते । सब कुछ अच्छे से गुज़र रहा था । पिताजी की एक ही चिंता थी - विवेक की नौकरी, वो भी सरकारी दफ्तर में । वे चाहते थे कि अगर उसकी नौकरी घर के पास किसी सरकारी दफ्तर में लग जाये तो बस उनके सारे सपने पूरे हो जायेंगे ।
पर कहते हैं न जो अपने माँ बाप का प्यारा होता है, वो उनके साथ नहीं रह पाता । विवेक के साथ भी ऐसा ही हुआ, पिताजी रोज़ की तरह पीपल के नीचे अपने दोस्तों के साथ हुक्का गुड़गुड़ा रहे थे कि डाकिये ने आकर उनकी बातों में विघ्न डाल दिया । साइकिल से उतरते ही उसने गोविन्द लाल जी से कहा- " चाचा आज तो पूरे सौ रूपए लूँगा उसके बाद ही चिट्ठी दूंगा आपको ।" गोविन्द लाल जी हँसते हुए बोले विवेक का रिश्ता लाया है क्या ? भाई अभी उसकी नौकरी लगने तक शादी नहीं करेंगे, चाहे किसी राजकुमारी का ही रिश्ता क्यों न आ जाये । डाकिया बाबू बोले," नहीं चाचा मिठाई खिलाइए, विवेक भैया की नौकरी लग गई है।" गोविन्द लाल जी एकदम उठ खड़े हुए और चिट्ठी डाकिये से लेकर जल्दी- जल्दी खोलने लगे । उनके मित्र राधेश्याम ने पूछा, कि भई, सरकारी नौकरी है क्या ? मुस्कुराते हुए गोविन्द लाल जी ने हाँ में सर हिलाया । फिर राधेश्याम ने दूसरा सवाल दागा - पक्की नौकरी है न ? गोविन्द लाल जी ने फिर हाँ में सिर हिलाया फिर अचानक उनकी मुस्कराहट मंद पड़ गई जब उन्होंने देखा कि विवेक की नियुक्ति तो गुजरात में हुई है । एक तरफ बेटे की नौकरी की ख़ुशी और दूसरी तरफ उस से बिछड़ने का गम । ऐसे में गोविन्द लाल जी समझ नहीं पा रहे थे कि मुस्कुराऊँ या बेटे के विछोह पर रो दूँ ।
जैसे-तैसे मन को मना कर वे घर पहुंचे और आते ही शोर मचाने लगे अजी सुनती हो तुम्हारी तपस्या रंग लाई हमारे विवेक की नौकरी लग गई । माँ की ख़ुशी का ठिकाना न रहा । गोविन्द लाल जी ने जब उनकी ख़ुशी देखी तो नियुक्ति की बात न बता सके । शाम को विवेक को मिठाई के साथ खुशखबरी दी गई । जब उसने नियुक्ति पत्र देखा तो वो ठिठक गया और बोला- "मुझे लगता है कि मुझे इस से भी अच्छी नौकरी मिल जाएगी, तो जल्दबाज़ी करके कुछ फायदा नहीं । मैं थोड़ा और इंतज़ार करना चाहता हूँ ।" पिताजी जानते थे कि वो ऐसा क्यों कह रहा है साथ ही उन्हें ये भी पता था की आजकल सरकारी नौकरियां इतनी आसानी से नहीं मिलती, इसलिए उन्होंने विवेक को समझाया - " तुझे क्या लगता है कि लोग तेरे लिए नौकरी थाली में सजा कर बैठे हुए हैं कि तू मौके छोड़ता जाए और तुझे फिर से दूसरा मौका मिल जाए । " नहीं, तुझे जाना ही होगा । हम दोनों की चिंता मत कर यहाँ सब लोगों के साथ रहेंगे और जब मन करेगा तब तेरे पास भी आ जाया करेंगे ।
बहुत समझाने के बाद आखिर विवेक नौकरी पर जाने के लिए तैयार हो गया । अपने करीबी दोस्तों को वो रोज़ ये ही कहता कि मेरे जाने के बाद माँ-पिताजी का ख़याल रखना । आखिर उसके जाने का दिन आ गया उसे विदा करने दोनों बहने भी आईं । सभी लोग उसे स्टेशन पर छोड़ने गए । गाड़ी चल पड़ी पर माँ की हिदायतें ख़त्म नहीं हो रही थी - बेटा किसी का दिया कुछ मत खाना, वहां जाकर खाना पकाने के लिए कोई रसोइया रख लेना, बाहर का मत खाना आदि । थोड़ी ही देर में गाड़ी चल पड़ी । कुछ देर तो विवेक को ऐसा लगता रहा मानों उसका कुछ पीछे छूटा जा रहा है, पर रात होने तक धीरे-धीरे सब सामान्य हो गया ।
सुबह गाड़ी से उतर कर सीधे वह अपने दफ्तर के पते पर पहुँचा । उसे अगले दिन से काम पर आने को कह दिया गया साथ ही उसे बताया गया कि सरकारी क्वार्टर के लिए उसे १५ दिन तक रुकना होगा । सारे काम निबटाकर वो टेलीफोन बूथ पर पहुँचा और पिताजी से बात करने के लिए चमनलाल राशन वाले की दुकान पर फ़ोन मिलाया । पिताजी आजकल दुकान के आस-पास ही रहते, विवेक से बात करने की उत्सुकता जो थी । पिताजी को सारी जानकारी देने के बाद विवेक अपने रहने के लिए सराय ढूंढने चला गया । दफ्तर के पास ही उसके रहने का बंदोबस्त हो गया । धीरे-धीरे सब कुछ सामान्य होता गया । रहने के लिए सरकारी क्वार्टर तथा खाने के लिए कैंटीन का बंदोबस्त हो गया । विवेक रोज़ ७ बजे पिताजी को फोन किया करता और तीन से चार महीने में घर पर जाकर उन्हें देख आया करता ।
धीरे-धीरे एक साल बीत गया । इधर गाँव में विवेक के लिए आए-दिन रिश्ते आते रहते । गोविन्द लाल जी उनमें से अच्छे रिश्ते छांटते और जब विवेक आता तो उसके साथ लड़की देख आते । बड़ी मुश्किल से उसे एक हफ्ते की छुट्टी मिलती और वो भी माँ- पिताजी के साथ न बिताकर लड़कियां देखने में निकल जाती । आख़िरकार उसने तय किया कि पिताजी और माता जी जिस लड़की को पसंद करेंगे वह उससे शादी कर लेगा । पिताजी अब और गहनता से लड़की देखने जाते ।
एक दिन वे पास के गाँव में पहुंचे उन्हें किसी ने बताया था कि जगदीश प्रसाद जी की बेटी सुंदर और गुणी है । जब वे जगदीश प्रसाद जी के घर पहुँचे तो उनकी खूब खातिरदारी की गई । गोविन्द लाल जी का मन किसी चीज़ में नहीं लग रहा था उन्हें तो बस लड़की देखनी थी । तभी एक साँवली सी लड़की ने चाय की ट्रे लेकर कमरे में प्रवेश किया । गोविन्द लाल जी ने देखा कि लड़की बहुत ही सीधी-सादी है और हमारे बेटे की तरह हमारा ख़याल रखेगी । उन्होंने जगदीश प्रसाद जी से कहा कि मुझे तो बिंदिया (लड़की) पसंद है, विवेक ने ये काम हम पर छोड़ रखा है इसलिए आप लोग निश्चिन्त रहिए ये रिश्ता होकर रहेगा ।
विवेक को भी खबर दे दी गई और उस से आकर एक बार लड़की को देख जाने को कहा गया । उसे पंद्रह दिन बाद छुट्टी मिली । इस बार लड़की के घर पिताजी नहीं गए बल्कि विवेक और उसका एक दोस्त गया । आज घर में काफी चहल-पहल दिख रही थी, विवेक हर आहट पर कमरे से बाहर देखता, उसके मुख पर व्याकुलता साफ़ नज़र आ रही थी कि तभी तीखे नैन-नक्श वाली कोई लड़की दरवाज़े के सामने से गुज़री । विवेक मन ही मन सोचने लगा - " पिताजी ने खूब परख के लड़की चुनी है ।" अभी वो ख्यालों में खोया ही था कि कमरे में चाय नाश्ते की ट्रे के साथ बिंदिया ने प्रवेश किया । विवेक अब भी ये ही सोच रहा था कि शायद लड़की बाद में आएगी । उसके विचारों पर तब तुषारापात हुआ जब जगदीश प्रसाद जी ने कहा बेटे ये है हमारी बेटी बिंदिया, आप को यदि इस से कुछ पूछना हो तो पूछ लीजिये । विवेक ने इसे पिताजी और भाग्य की मर्ज़ी समझ कर न में सिर हिलाया और थोड़ी देर में उन लोगों के घर से ये कहकर विदा ली कि मैं अपना जवाब घर पहुँचकर बता दूंगा । कमरे से बाहर निकलते हुए भी विवेक की निगाहें उसी लड़की को ढूंढ रही थी ।
रास्ते भर वो इसी उधेड़ बून में लगा रहा कि क्या पिताजी से मन की बात कहकर उस लड़की का रिश्ता मांग लूँ ? पर घर आकर वो कुछ कहता इस से पहले ही पिताजी बोल उठे देखा, अच्छी लड़की पसंद की न तेरे लिए ? वो लड़की मुझे इतनी सीधी लगी जैसे तेरी माँ है, बस ! फिर मैंने कुछ नहीं सोचा । ऐसी लड़की तेरे साथ तेरे बूढ़े माँ बाप का भी ख़याल रखेगी वरना आजकल की लड़कियां बस अपने पति और अपने बारे में सोचती हैं । पिताजी के ये ख्याल सुनकर विवेक ने अपने मन को संभाला और पिताजी से कहा कि उनके घर पर कहलवा दीजिये कि हमें रिश्ता मंज़ूर है ।
घर पर शादी की तैयारियाँ ज़ोर-शोर से होने लगी । आखिर वो दिन भी आ गया, जब विवेक दूल्हा बन कर बिंदिया के घर बारात लेकर पहुँचा । ससुराल पक्ष ने बारात का स्वागत बड़ी अच्छी तरह से किया । विवेक अपने दोस्तों के बीच बैठा कुछ सोच रहा था कि तभी उनके पास जगदीश प्रसाद जी आए और हाथ जोड़कर बोले खाना लग गया है, आप लोगों की प्रतीक्षा हो रही है । विवेक और उसके दोस्त उनके साथ चल दिए । वे लोग एक बड़ी-सी मेज के सामने पहुँचे, जो विभिन्न प्रकार के व्यंजनों से भरी पड़ी थी । उस मेज के चारो तरफ दोनों पक्षों के करीबी लोग विराजमान थे । विवेक और उसके दोस्त भी आकर बैठ गए । वहीँ दोबारा से विवेक की नज़र उस लड़की पर पड़ी । इस बार वो खुद को रोक न सका और बिंदिया के भाई से पूछा ये कौन है ? उसने बताया कि ये हमारी चचेरी बहन है । विवेक अब कुछ नहीं कर सकता था इसलिए उसने बात को आगे न बढ़ाना ही उचित समझा । शादी की रस्में देर रात तक चली और सुबह बिंदिया विदा होकर विवेक के घर आ गई ।
बिंदिया का स्वाभाव वैसे तो बहुत अच्छा था पर वह गाँव में ज़्यादा दिन नहीं रहना चाहती थी, ये बात और थी कि वो खुद भी गाँव की ही रहने वाली थी । कुछ ही दिनों में विवेक की छुट्टियाँ ख़त्म हो गईं और वो जाने की तैयारियां करने लगा । शुरुआत में बिंदिया को लगा था कि विवेक उसे साथ ले जायेगा, इसलिए वो सास-ससुर के साथ अच्छे से रहती पर जब उसे पता चला कि इस बार वो गुजरात नहीं जा रही है तो उसके मन में गुस्सा भरना शुरू हो गया । धीरे-धीरे उस गुस्से ने नफरत का रूप ले लिया । उसे अपने सास ससुर की हर बात बुरी लगती । विवेक जब फोन करता तो उसे भी ये ही बताती कि यहाँ मेरे बारे में तो कोई सोचता ही नहीं । बेचारा विवेक जो सोचता था कि मेरी अनुपस्थिति में मेरी पत्नी मेरे माता-पिता का ध्यान रखेगी उसके मन को बहुत ठेस पहुँची । उसने सोचा कि रोज़-रोज़ की शिकायतों से अच्छा मैं बिंदिया को गुजरात ले आऊं । कुछ ही दिनों बाद वह गाँव आया और बिंदिया को ले गया ।
गुजरात का माहौल बिंदिया को स्वर्ग लोक सा लगा । अब तो उसे अपनी दुनिया में कोई और नहीं चाहिए था, बस वो और विवेक पर कुछ ही दिनों में उसे पता चला कि वो माँ बनने वाली है । जब ये खबर विवेक के माता-पिता को लगी तो वे तुरंत गुजरात आ पहुँचे । बिंदिया को ये बिल्कुल अच्छा न लगा । खैर पिताजी तो दो दिन में ही लौट गए पर विवेक की माँ बिंदिया की देखभाल के लिए रुक गई । बिंदिया रोज़ विवेक के कान उसकी माँ के खिलाफ भरती । शुरुआत में तो विवेक ने ध्यान नहीं दिया पर धीरे-धीरे उसे भी माँ के कामों में कमीं नज़र आने लगी । और एक दिन उसने खुलकर माँ से कह दिया कि गाँव में पिताजी परेशान होंगे इसलिए मैं आपको गाँव छोड़ आता हूँ । माँ को सब समझ में आ रहा था पर वो कुछ न बोली । समय बीतता गया और बिंदिया ने बेटी को जन्म दिया । सबने मिलकर उसका नाम युक्ति रखा । अब विवेक के जाने के बाद बिंदिया अपनी बेटी में लगी रहती । कहते हैं न कि बेटियां जल्दी बड़ी होती हैं, ऐसे ही युक्ति काफी बड़ी हो गई । युक्ति को अपनी माँ के सारे गुण अच्छे लगते पर पिता की नसीहतें उसे हमेशा बुरी लगती । जब भी विवेक उसे कुछ समझाना चाहता वो नज़रअंदाज़ कर देती । विवेक इन्ही बातों को लेकर परेशान रहने लगा ।
एक समय ऐसा आया कि विवेक की उपस्थिति भी माँ बेटी को खलने लगी । वो जब तक ऑफिस में रहता दोनों खुश रहती और उसके घर में आते ही किसी न किसी बात पर उस से झगड़ पड़ती और फिर मजबूरन विवेक को अपने कमरे में जाना पड़ता जहाँ उसे देखने वाला कोई न होता । वो हमेशा सोचता कि मैंने कहाँ गलती कर दी ? पर उसे कभी उत्तर न मिल पाता । उसका व्यव्हार इतना चिड़चिड़ा हो गया कि उसके दोस्त उस से बात करने में कतराने लगे । वो हमेशा मन में सोचता मैं तो माँ पिताजी की पसंद की लड़की से ब्याह करके उनको खुश रखना चाहता था पर न तो माँ-पिताजी को ही खुश रख पाया, न पत्नी को, न बेटी को और न खुद को । आज उम्र के अंतिम पड़ाव में वो बस ये ही सोचता है कि शायद जिस लड़की को मैंने पसंद किया था उसी से शादी करता तो ये सब न होता ।
दोस्तों विवेक को ऐसा क्यों लगा ?
यहाँ मुझे विवेक से भी कुछ शिकायतें हैं । बिंदिया दूसरे घर से आई थी, यहाँ विवेक का ये कर्तव्य बनता था कि वो बिंदिया का अपने घर की अच्छी- बुरी सब बातों से परिचय करवाता । मैं गलत भी हो सकती हूँ, मुझे इस सम्बन्ध में आपकी राय का इंतज़ार रहेगा ।
एक दिन वे पास के गाँव में पहुंचे उन्हें किसी ने बताया था कि जगदीश प्रसाद जी की बेटी सुंदर और गुणी है । जब वे जगदीश प्रसाद जी के घर पहुँचे तो उनकी खूब खातिरदारी की गई । गोविन्द लाल जी का मन किसी चीज़ में नहीं लग रहा था उन्हें तो बस लड़की देखनी थी । तभी एक साँवली सी लड़की ने चाय की ट्रे लेकर कमरे में प्रवेश किया । गोविन्द लाल जी ने देखा कि लड़की बहुत ही सीधी-सादी है और हमारे बेटे की तरह हमारा ख़याल रखेगी । उन्होंने जगदीश प्रसाद जी से कहा कि मुझे तो बिंदिया (लड़की) पसंद है, विवेक ने ये काम हम पर छोड़ रखा है इसलिए आप लोग निश्चिन्त रहिए ये रिश्ता होकर रहेगा ।
विवेक को भी खबर दे दी गई और उस से आकर एक बार लड़की को देख जाने को कहा गया । उसे पंद्रह दिन बाद छुट्टी मिली । इस बार लड़की के घर पिताजी नहीं गए बल्कि विवेक और उसका एक दोस्त गया । आज घर में काफी चहल-पहल दिख रही थी, विवेक हर आहट पर कमरे से बाहर देखता, उसके मुख पर व्याकुलता साफ़ नज़र आ रही थी कि तभी तीखे नैन-नक्श वाली कोई लड़की दरवाज़े के सामने से गुज़री । विवेक मन ही मन सोचने लगा - " पिताजी ने खूब परख के लड़की चुनी है ।" अभी वो ख्यालों में खोया ही था कि कमरे में चाय नाश्ते की ट्रे के साथ बिंदिया ने प्रवेश किया । विवेक अब भी ये ही सोच रहा था कि शायद लड़की बाद में आएगी । उसके विचारों पर तब तुषारापात हुआ जब जगदीश प्रसाद जी ने कहा बेटे ये है हमारी बेटी बिंदिया, आप को यदि इस से कुछ पूछना हो तो पूछ लीजिये । विवेक ने इसे पिताजी और भाग्य की मर्ज़ी समझ कर न में सिर हिलाया और थोड़ी देर में उन लोगों के घर से ये कहकर विदा ली कि मैं अपना जवाब घर पहुँचकर बता दूंगा । कमरे से बाहर निकलते हुए भी विवेक की निगाहें उसी लड़की को ढूंढ रही थी ।
रास्ते भर वो इसी उधेड़ बून में लगा रहा कि क्या पिताजी से मन की बात कहकर उस लड़की का रिश्ता मांग लूँ ? पर घर आकर वो कुछ कहता इस से पहले ही पिताजी बोल उठे देखा, अच्छी लड़की पसंद की न तेरे लिए ? वो लड़की मुझे इतनी सीधी लगी जैसे तेरी माँ है, बस ! फिर मैंने कुछ नहीं सोचा । ऐसी लड़की तेरे साथ तेरे बूढ़े माँ बाप का भी ख़याल रखेगी वरना आजकल की लड़कियां बस अपने पति और अपने बारे में सोचती हैं । पिताजी के ये ख्याल सुनकर विवेक ने अपने मन को संभाला और पिताजी से कहा कि उनके घर पर कहलवा दीजिये कि हमें रिश्ता मंज़ूर है ।
घर पर शादी की तैयारियाँ ज़ोर-शोर से होने लगी । आखिर वो दिन भी आ गया, जब विवेक दूल्हा बन कर बिंदिया के घर बारात लेकर पहुँचा । ससुराल पक्ष ने बारात का स्वागत बड़ी अच्छी तरह से किया । विवेक अपने दोस्तों के बीच बैठा कुछ सोच रहा था कि तभी उनके पास जगदीश प्रसाद जी आए और हाथ जोड़कर बोले खाना लग गया है, आप लोगों की प्रतीक्षा हो रही है । विवेक और उसके दोस्त उनके साथ चल दिए । वे लोग एक बड़ी-सी मेज के सामने पहुँचे, जो विभिन्न प्रकार के व्यंजनों से भरी पड़ी थी । उस मेज के चारो तरफ दोनों पक्षों के करीबी लोग विराजमान थे । विवेक और उसके दोस्त भी आकर बैठ गए । वहीँ दोबारा से विवेक की नज़र उस लड़की पर पड़ी । इस बार वो खुद को रोक न सका और बिंदिया के भाई से पूछा ये कौन है ? उसने बताया कि ये हमारी चचेरी बहन है । विवेक अब कुछ नहीं कर सकता था इसलिए उसने बात को आगे न बढ़ाना ही उचित समझा । शादी की रस्में देर रात तक चली और सुबह बिंदिया विदा होकर विवेक के घर आ गई ।
बिंदिया का स्वाभाव वैसे तो बहुत अच्छा था पर वह गाँव में ज़्यादा दिन नहीं रहना चाहती थी, ये बात और थी कि वो खुद भी गाँव की ही रहने वाली थी । कुछ ही दिनों में विवेक की छुट्टियाँ ख़त्म हो गईं और वो जाने की तैयारियां करने लगा । शुरुआत में बिंदिया को लगा था कि विवेक उसे साथ ले जायेगा, इसलिए वो सास-ससुर के साथ अच्छे से रहती पर जब उसे पता चला कि इस बार वो गुजरात नहीं जा रही है तो उसके मन में गुस्सा भरना शुरू हो गया । धीरे-धीरे उस गुस्से ने नफरत का रूप ले लिया । उसे अपने सास ससुर की हर बात बुरी लगती । विवेक जब फोन करता तो उसे भी ये ही बताती कि यहाँ मेरे बारे में तो कोई सोचता ही नहीं । बेचारा विवेक जो सोचता था कि मेरी अनुपस्थिति में मेरी पत्नी मेरे माता-पिता का ध्यान रखेगी उसके मन को बहुत ठेस पहुँची । उसने सोचा कि रोज़-रोज़ की शिकायतों से अच्छा मैं बिंदिया को गुजरात ले आऊं । कुछ ही दिनों बाद वह गाँव आया और बिंदिया को ले गया ।
गुजरात का माहौल बिंदिया को स्वर्ग लोक सा लगा । अब तो उसे अपनी दुनिया में कोई और नहीं चाहिए था, बस वो और विवेक पर कुछ ही दिनों में उसे पता चला कि वो माँ बनने वाली है । जब ये खबर विवेक के माता-पिता को लगी तो वे तुरंत गुजरात आ पहुँचे । बिंदिया को ये बिल्कुल अच्छा न लगा । खैर पिताजी तो दो दिन में ही लौट गए पर विवेक की माँ बिंदिया की देखभाल के लिए रुक गई । बिंदिया रोज़ विवेक के कान उसकी माँ के खिलाफ भरती । शुरुआत में तो विवेक ने ध्यान नहीं दिया पर धीरे-धीरे उसे भी माँ के कामों में कमीं नज़र आने लगी । और एक दिन उसने खुलकर माँ से कह दिया कि गाँव में पिताजी परेशान होंगे इसलिए मैं आपको गाँव छोड़ आता हूँ । माँ को सब समझ में आ रहा था पर वो कुछ न बोली । समय बीतता गया और बिंदिया ने बेटी को जन्म दिया । सबने मिलकर उसका नाम युक्ति रखा । अब विवेक के जाने के बाद बिंदिया अपनी बेटी में लगी रहती । कहते हैं न कि बेटियां जल्दी बड़ी होती हैं, ऐसे ही युक्ति काफी बड़ी हो गई । युक्ति को अपनी माँ के सारे गुण अच्छे लगते पर पिता की नसीहतें उसे हमेशा बुरी लगती । जब भी विवेक उसे कुछ समझाना चाहता वो नज़रअंदाज़ कर देती । विवेक इन्ही बातों को लेकर परेशान रहने लगा ।
एक समय ऐसा आया कि विवेक की उपस्थिति भी माँ बेटी को खलने लगी । वो जब तक ऑफिस में रहता दोनों खुश रहती और उसके घर में आते ही किसी न किसी बात पर उस से झगड़ पड़ती और फिर मजबूरन विवेक को अपने कमरे में जाना पड़ता जहाँ उसे देखने वाला कोई न होता । वो हमेशा सोचता कि मैंने कहाँ गलती कर दी ? पर उसे कभी उत्तर न मिल पाता । उसका व्यव्हार इतना चिड़चिड़ा हो गया कि उसके दोस्त उस से बात करने में कतराने लगे । वो हमेशा मन में सोचता मैं तो माँ पिताजी की पसंद की लड़की से ब्याह करके उनको खुश रखना चाहता था पर न तो माँ-पिताजी को ही खुश रख पाया, न पत्नी को, न बेटी को और न खुद को । आज उम्र के अंतिम पड़ाव में वो बस ये ही सोचता है कि शायद जिस लड़की को मैंने पसंद किया था उसी से शादी करता तो ये सब न होता ।
दोस्तों विवेक को ऐसा क्यों लगा ?
यहाँ मुझे विवेक से भी कुछ शिकायतें हैं । बिंदिया दूसरे घर से आई थी, यहाँ विवेक का ये कर्तव्य बनता था कि वो बिंदिया का अपने घर की अच्छी- बुरी सब बातों से परिचय करवाता । मैं गलत भी हो सकती हूँ, मुझे इस सम्बन्ध में आपकी राय का इंतज़ार रहेगा ।
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