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Thursday, 16 November 2017


गलती का एहसास 


कल  जब अपेक्षा अपनी  स्कूल बस से घर  लौट रही थी, तब उसने देखा कि एक बूढ़ी औरत और उसकी पोती सड़क किनारे बैठे थे और पोती एक थैली में से अपनी दादी को कुछ खिला रही थी |  अपेक्षा बस में  बैठे -बैठे सोच में डूब गई, मैं भी तो दादा जी और दादी के साथ रहती हूँ पर मैंने कभी उनके साथ ठीक से बात भी नहीं की और इस लड़की के पास कुछ भी नहीं है फिर भी ये अपनी दादी के साथ प्यार से बाँट कर खा रही है | 

आज उसे अपनी गलती का एहसास हो रहा था, उसने मन ही मन तय किया कि आज से वो पूरी तरह बदल जाएगी और रात में  थोड़ा समय निकालकर दादा-दादी के साथ बैठा करेगी | मन में कईं आशाएँ  लिए वो कब घर पहुँच गई पता ही न चला | मगर ये क्या ? जैसे ही उसने घर के अंदर कदम रखा दादी अपने सामान का बैग लेकर दूसरे कमरे से बैठक में प्रवेश कर रही थी | उसने पूछा- दादी क्या हुआ ? आप कहाँ जा रही हैं ? उनकी आँखों में आँसू थे, ये देखकर अपेक्षा दादा जी के पास पहुँची, जो अपने  बैग की ज़िप लगा रहे थे,  उसने उनसे भी वो ही सवाल पूछा | पहले तो दादाजी चुप रहे फिर कुछ सँभलते हुए बोले कि बेटा हमें यहाँ पंद्रह दिन हो गए, पर ऐसा लगता है जैसे बहुत दिन हो गए, सच तो ये है अप्पू कि हमें गाँव में रहने की आदत है और हमारा यहाँ मन नहीं लग रहा है | तुम्हारे पिताजी से टिकट मँगवा ली हैं आज शाम की गाड़ी से वापस जा रहे हैं | 

अपेक्षा का मन बहुत दुखी हुआ क्योंकि उसे पता था कि दादा-दादी अब बूढ़े हो चले है और वो यहाँ (मुंबई)  हमेशा के लिए रहने आए थे | दादी के आँसू देखकर उसे समझ आ रहा था कि गलती कहाँ है ? उसे  याद आता है वो दिन जिस दिन वो अपने मम्मी- पापा के साथ दादा- दादी को लेने स्टेशन गई थी, जैसे ही दादी ने उसे देखा गले से लगा लिया और काफी देर तक मन ही मन उसे निहारते हुए दुआएँ देती रही | दादी उसके लिए बहुत ही स्वादिष्ट मिठाई बनाकर लाई थी और दादाजी ने उसे एक डायरी दी जिसमें उन्होंने अपने गांव के बहुत सारे किस्से लिखे थे |  एक- दो दिन तक सब बहुत अच्छा था मम्मी-पापा की छुट्टी थी, इसलिए सब लोग साथ में बैठकर खूब बातें करते, पर सोमवार आते ही मम्मी -पापा अपने काम पर निकल गए और अपेक्षा स्कूल के लिए | दिन-भर बेचारे दोनों किसी तरह अपनेआप को व्यस्त रखने की कोशिश में लगे रहते, पर शाम को जब सब घर लौट आते तब भी सब अपने में ही व्यस्त दिखाई देते, मम्मी खाना बनाने और घर की कामों में लग जाती, पापा फ़ोन पर लगे रहते और अपेक्षा स्कूल के कामों में | 

जब दादी ने इस बारे में मम्मी से बात करने की कोशिश की तो उन्होंने ये कहकर टाल दिया की माँ जी बस सोमवार से शुक्रवार तक हम व्यस्त रहते हैं फिर शनिवार, रविवार है न आपके साथ खूब सारी बातें करने के लिए | फिर दादाजी ने भी पापा से बात करने का प्रयास किया पर उन्होंने ये कहकर अपना पल्ला झाड़ लिया कि पिताजी मुंबई का ये ही कल्चर है, हफ्ता भर खूब काम करो और फिर दो दिन आराम करो, आप नहीं समझ पाओगे, आपने तो बड़े आराम की नौकरी की है | फिर भी दोनों ने यहाँ रहने का बहुत प्रयत्न किया पर इस बार अपेक्षा की एक बात ने दोनों बुज़ुर्गों के दिल को इतना दुख दिया कि उन्होंने वापस गाँव लौट जाना ही उचित  समझा |  हुआ यूँ कि अपेक्षा के स्कूल में ग्रैंड पेरेंट्स डे मनाया जाना था, सभी छात्रों को कहा गया कि वे अपने दादा-दादी या घर के किसी बुज़ुर्ग को स्कूल लेकर आएं | अपेक्षा अच्छे स्कूल में पढ़ती थी और अपने दादा-दादी के रहन-सहन को देखकर उसने अपनी शिक्षिका से ये कह दिया कि मेरे घर में कोई बुज़ुर्ग नहीं है और जब वो ये बात अपनी मम्मी को बता रही थी तभी दादी ने सुन लिया और उस दिन से ही दोनों दादा-दादी चुप रहने लगे और वापस गाँव जाने की ज़िद करने लगे | 

कईं बार कारण पूछने पर भी जब दादा-दादी ने कुछ नहीं बताया, तो पापा ने टिकट लाकर दे दिए | अपेक्षा को अपने किये पर बहुत शर्मिंदगी थी, पर अब कर भी क्या सकती थी तभी उसने सोचा कि अगर अभी भी न रोक सकी तो कुछ नहीं होगा और ज़िन्दगी भर मैं इसी ग्लानि के साथ रहूंगी कि दादा-दादी मेरी वजह से वापस लौट गए | वो सोच रही थी कि कैसे उन्हें रोकूँ कि तभी उसके दिमाग में एक विचार आया, और उसके मुख की गंभीरता मुस्कान में बदल गई | वो भाग कर दादी के पास गई और बोली - दादी," हमारे स्कूल में एक प्रतियोगिता होने वाली है जिसमें सबको घर से एक मिठाई बनाकर लानी है, क्या आप वो मिठाई मुझे बनाना सीखा देंगी ? वरना हर बार की तरह रोहिणी जीत जाएगी | " दादी ने पूछा- "कब ले जाना है ? " अपेक्षा बोली अगले सोमवार | इसपर दादी ने कहा तो मैं तुम्हे लिखवा देती हूँ तुम बनाकर ले जाना | अपेक्षा रोने लगी और बोली दादी क्या तुम मेरे लिए इतना भी नहीं करोगी ? मैं बहुत बुरी हूँ न ?  मुझे ये ही सजा मिलनी चाहिए | इतना सुनना था की दादी ने उसे गले लगाया और खूब फूट-फूट कर रोने लगी और बस बार-बार ये ही दोहराती रही कि नहीं, मेरी अप्पू बहुत अच्छी है।  

रोने की आवाज़ सुनकर सब लोग कमरे में आ गए | दादाजी ने धीरे से कहा कांता ट्रेन का समय हो गया है, चलो तैयार हो जाओ इसपर दादी ने कहा अब आए हैं तो कुछ दिन और रह लेते हैं अपेक्षा को मिठाई प्रतियोगिता जिता कर जायेंगे | अपेक्षा ने झट से अपना सिर उनकी गोद  से उठाया और कहा कि अब मैं  आप दोनों को कहीं नहीं जाने दूँगी, हमेशा अपने साथ रखूंगी | ये सुनकर दोनों के चेहरों पर एक मीठी मुस्कान दिखाई  देने लगी | 

दोस्तों गलती हम सबसे होती है, पर जो व्यक्ति समय रहते  उस गलती को सुधार लेता है, उसे ही समझदार माना  जाता है | आज हम सब अपनी दिनचर्या में बहुत व्यस्त हैं, और कईं बार इस व्यस्तता को बहाना बनाकर हम अपने बूढ़े माता-पिता की ज़रूरतों को नज़रअंदाज़ कर देते हैं, इस उम्र में हमें उनकी ज़िम्मेदारी उठानी चाहिए पर हमें वे बोझ लगने लगते हैं, ये हम भी जानते हैं कि उन्हें हमसे कोई लालच नहीं, वे बस अपने जीवन के इस मोड़ पर हमारा साथ चाहते हैं, क्या हम उनका साथ दे सकते हैं ? आपके जवाब का इंतज़ार रहेगा |


- कविता गाँग्यान 




























Friday, 17 March 2017

VIDAAI SAMAROH


       मेरी कक्षा के विदाई समारोह पर 
१७ मार्च २०१७ 

आज मेरे विद्यालय में  कक्षा दस के छात्रों का विदाई समारोह था । उनकी कक्षाध्यापिका होने के नाते मैं उन्हें बहुत कुछ कहना चाहती थी, पर मैं जानती थी कि मेरा भावुक स्वभाव मुझे कुछ ज़्यादा नहीं कहने देगा, इसलिए मैंने उनके लिए एक कविता लिखी, जो सीख  हर शिक्षक अपने छात्र को देना चाहता है उन्ही बातों को इकठ्ठा करके मैंने कुछ लिखा है - 


देती हूँ मैं विदाई, कुछ ऐसे ढंग से । 
थोड़े से आंसुओं से थोड़ी उमंग से । 

जो वक्त बिताया यहाँ , वो भूल न जाना । 
मसरूफियत दे मौका , तो मिलने ज़रूर आना । 

सीखा  यहाँ पे जो है, उसे आगे अपनाना । 
इस छोटी- सी नदी से , तुम्हे जलधि में जाना । 

गर न मिले सफलता , तुम्हें  एक बार में । 
तो होके  तुम मायूस कहीं बैठ न जाना । 

न बैठना सुकूँ से, कि जब तक न काम हो । 
दुनिया में मेरे शिष्यों , तुम्हारा ही नाम हो । 

ऊंचाइयों की सीढियाँ , चढ़ते चले जाना । 
पर अपनी जड़ों को कभी तुम भूल न जाना । 

मिल जाऊँ गर कहीं, तो ज़रा मुस्कुरा देना । 
अपनी गुरु को ये ही गुरु- दक्षिणा देना ।


- कविता गांग्यान 


Monday, 27 February 2017



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भविष्य में कैसे होंगे स्कूल ?

कहते हैं आवश्यकता अविष्कार की जननी होती है | एक समय था जब मनुष्य पेड़ की छाल पर लिखा करता था और आज वो कंप्यूटर पर टाइपिंग करता है | ऐसे ही मनुष्य के विकास के रास्ते में जो भी अवरोध आया उसने उसका समाधान खोज ही लिया | पुराने समय में छात्र गुरुकुल में अपने गुरु के साथ रहकर शिक्षा ग्रहण करते थे, आज जगह-जगह विद्यालय खोले गए जहाँ पठन-पाठन की नई-नई पद्धतियों का उपयोग होता है, पर अभी-भी कई समस्याएँ हैं, जो आए दिन हमें सोचने पर मजबूर कर देती हैं | 

जैसे- छोटे से बच्चे के कोमल कंधों पर भरी-भरकम बस्ते का बोझ, किताबों के उबाऊ चित्र जिनका कभी-कभी विषय से कुछ लेना देना नहीं होता, सीखने के वही घिसे-पिटे तरीके आदि कई ऐसी समस्याएँ हैं जो हमें काफी समय से बदलाव के लिए प्रेरित कर रही हैं |

अब सवाल उठता है कि आने वाले समय में स्कूल कैसा होगा जो इन सब समस्याओं के समाधान के रूप में हमारे सामने आए | तो लीजिए जवाब आपके सामने है –


नए ज़माने का कक्षा-कक्ष (classroom) – आने वाले समय में कक्षा- कक्ष पूरी तरह बदल जायेंगे |

दीवारें - 
साभार- विकिपीडिया 
                   

आज कक्षा की दीवारों पर सभी विषयों के चार्ट बनाकर लगाए जाते हैं, जिन्हें हर 15 से 20 दिन में बदला जाता है, नए ज़माने में दीवारों पर एल.सी.डी स्क्रीन लगे होंगे जिनपर उसी विषय के चित्र और जानकारी दिखाई देगी जो उस समय कक्षा में पढाया जा रहा होगा | उदाहरण के लिए यदि हिंदी की कक्षा में रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की कविता पढाई जा रही होगी तो कक्षा की सभी दीवारों पर रामधारी सिंह ‘दिनकर’ से संबंधित जानकारी तथा उनके चित्र दिखाई देने लगेंगे, जिससे छात्रों की विषय में रुचि बढ़ेगी तथा उन्हें कम समय में पहले से अधिक जानकारी प्राप्त होगी |

चित्र इन्टरनेट से लिया गया है ।   



ब्लैक बोर्ड और चाक


ऐसी कक्षा में ब्लैक बोर्ड तथा चाक के लिए कोई जगह नहीं होगी बल्कि स्मार्ट बोर्ड जो कई विद्यालयों में लगाए भी जा चुके हैं उनमें और अधिक सुधार के साथ उनका प्रयोग किया जायेगा |




स्कूल बैग


आने वाले समय में स्कूल ऐसे नहीं होंगे जैसे आज हैं, बल्कि वे पूरी तरह इलेक्ट्रॉनिक हो जायेंगे | जिसका सीधे शब्दों में अर्थ है कि उस समय बच्चो को स्कूल बैग के बोझ की तकलीफ का सामना नहीं करना पड़ेगा | ये भी सम्भावना है कि छात्र बिना बैग के सिर्फ एक टैबलेट लेकर  विद्यालय जाएँ |


किताबें -

चित्र इन्टरनेट से लिया गया है । 
अब  सवाल उठता है कि किताबें कैसी होंगी?  उसका सीधा सा जवाब है कि छात्रों  की टेबल पर ही एक स्क्रीन लगा होगा जिसे वे  अपनी  पाठ्यपुस्तक की तरह आराम से पन्ने पलटते हुए पढ़ सकेंगे |  इतना ही  नहीं  पुस्तक के चित्र इतने वास्तविक होंगे कि छात्रों को पुस्तक पढने आसानी होगी |   इसे एक उदाहरण की मदद से समझते हैं –  जीव विज्ञान (बायोलॉजी) की कक्षा में किसी जीव पर जानकारी देते हुए शिक्षिका उसी समय छात्रों को उस जीव के चित्र के साथ उसके शरीर के भीतरी भागों से भी परिचित करवा सकती है,  जिससे छात्रों को समझने में आसानी होगी |


 शिक्षक की भूमिका -


इन सभी चीज़ों के साथ शिक्षक भी पूरी तरह बदल जाएँगे | अब उन्हें अपनी बातों को समझाने के लिए शब्दों से ज़्यादा तथ्यों का उपयोग करना होगा अर्थात शिक्षक द्वारा दी गई जानकारी जितनी ज़्यादा तथ्यों पर आधारित होगी छात्र की ज्ञान पिपासा उतनी आसानी से शांत हो सकेगी | शिक्षक अब सिर्फ एक शिक्षक न रहकर पथप्रदर्शक का रूप ले लेंगे, जिसके लिए उन्हें नई-नई तकनीकों से लैस रहना होगा |


 घर बैठे शिक्षा

भविष्य में तो ये भी सम्भावना है कि भीड़-भाड़ और प्रदूषण के चलते छात्र घर बैठे ही शिक्षा ग्रहण करना शुरू कर दें | इसके लिए उन्हें ऑनलाइन शिक्षा का सहारा लेना होगा जिसमें उनकी  ज़रुरत और समय के हिसाब से शिक्षक हर समय उनकी  मदद के लिए हाज़िर होंगे ऐसे में छात्र साल भर पढ़कर साल के अंत में परीक्षा दे सकते हैं |


एक शिक्षिका होने के नाते मेरा ये मानना है कि यदि हम विकास चाहते हैं तो हर तरह के बदलाव के लिए भी हमें तैयार रहना होगा और पूरी सकारात्मकता से इन बदलावों को अपनाकर आगे बढ़ना होगा | आपकी इस विषय में क्या राय है ये  जानने का मुझे इंतज़ार रहेगा । 


- कविता गांग्यान 

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Friday, 17 February 2017

Ek Kahaani


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मन की पीड़ा.........  


समझदारी, हंसमुख स्वाभाव सभी कुछ तो था विवेक में । दो बहनों का इकलौता भाई माँ बाप का दुलारा। बहनो की शादी उसने अच्छा घर-बार देख कर करवा दी और बस अब घर पर वो और माता-पिता ही साथ रहते। विवेक बहुत मस्तमौला था बहनो की शादी के बाद ज़िम्मेदारी भी कम हो गई इसलिए वो देर शाम तक दोस्तों के बीच बैठ जाया करता। इधर उसकी माँ गायत्री देवी परेशान हो जाती और गली में खेलते हर किसी बच्चे से विवेक के बारे में पूछने लगती। ऐसा नहीं था कि  उसे अपने माता-पिता की परवाह नहीं थी पर जब से बहने ब्याही थीं उसे घर खाने को दौड़ता था । 

अब बच्चियों के जाने के बाद माँ के लिए विवेक का ही सहारा था, जब तक वे दोनों थी वो अपनी दिन भर की बातें उनसे कर लिया करती पर अब तो उसकी बातें सुनने के लिए विवेक ही बचा था । पिताजी गोविन्द लाल जी भी अब सेवानिवृत हो गए थे और दिन भर गाँव चौपाल में बैठे हुक्के का मज़ा लेते हुए अपने दोस्तों के साथ पुरानी यादें ताज़ा करते । सब कुछ अच्छे से गुज़र रहा था । पिताजी की एक ही चिंता थी -  विवेक की नौकरी, वो भी सरकारी दफ्तर में । वे चाहते थे कि अगर उसकी नौकरी घर के पास किसी सरकारी दफ्तर में लग जाये तो बस उनके सारे सपने पूरे हो जायेंगे । 


पर कहते हैं न जो अपने माँ बाप का प्यारा होता है, वो उनके साथ नहीं रह पाता । विवेक के साथ भी ऐसा ही हुआ, पिताजी रोज़ की तरह पीपल के नीचे अपने दोस्तों के साथ हुक्का गुड़गुड़ा रहे थे कि डाकिये ने आकर उनकी बातों में विघ्न डाल दिया । साइकिल से उतरते ही उसने  गोविन्द लाल जी से कहा- " चाचा आज तो पूरे सौ रूपए लूँगा उसके बाद ही चिट्ठी दूंगा आपको ।" गोविन्द लाल जी हँसते हुए बोले विवेक का रिश्ता लाया है क्या ? भाई अभी उसकी नौकरी लगने तक शादी नहीं करेंगे, चाहे किसी राजकुमारी का ही रिश्ता क्यों न आ जाये । डाकिया बाबू बोले," नहीं चाचा मिठाई खिलाइए,  विवेक भैया की नौकरी लग गई है।" गोविन्द लाल जी एकदम उठ खड़े हुए और चिट्ठी डाकिये से लेकर जल्दी- जल्दी खोलने लगे । उनके मित्र राधेश्याम ने पूछा, कि  भई, सरकारी नौकरी है क्या ? मुस्कुराते हुए गोविन्द लाल जी ने हाँ में सर हिलाया । फिर राधेश्याम ने दूसरा सवाल दागा - पक्की नौकरी है न ? गोविन्द लाल जी ने फिर हाँ में सिर हिलाया फिर अचानक उनकी मुस्कराहट  मंद पड़  गई जब उन्होंने देखा कि विवेक की नियुक्ति तो गुजरात में हुई है । एक तरफ बेटे की नौकरी की ख़ुशी और दूसरी तरफ उस से बिछड़ने का गम । ऐसे में  गोविन्द लाल जी समझ नहीं पा रहे थे कि मुस्कुराऊँ या बेटे के विछोह पर रो दूँ । 

जैसे-तैसे मन को मना कर   वे घर पहुंचे और आते ही शोर मचाने लगे अजी सुनती हो तुम्हारी तपस्या रंग लाई हमारे विवेक की नौकरी लग गई । माँ की ख़ुशी का ठिकाना न रहा । गोविन्द लाल जी  ने जब उनकी ख़ुशी देखी  तो नियुक्ति की बात न बता सके । शाम को विवेक को मिठाई के साथ खुशखबरी दी गई । जब उसने नियुक्ति पत्र देखा तो वो ठिठक गया और बोला- "मुझे लगता है कि मुझे इस से भी अच्छी नौकरी मिल जाएगी, तो जल्दबाज़ी करके कुछ फायदा नहीं । मैं थोड़ा और इंतज़ार करना चाहता हूँ ।"  पिताजी जानते थे कि  वो ऐसा क्यों कह रहा है साथ ही उन्हें ये भी पता था की आजकल सरकारी नौकरियां इतनी आसानी से नहीं मिलती, इसलिए उन्होंने विवेक को समझाया - " तुझे क्या लगता है कि लोग तेरे लिए नौकरी थाली में सजा कर बैठे हुए हैं कि तू मौके छोड़ता जाए  और तुझे फिर से दूसरा मौका मिल जाए  । " नहीं, तुझे जाना ही होगा । हम दोनों की चिंता मत कर यहाँ सब लोगों के साथ रहेंगे और जब मन करेगा तब तेरे पास भी आ जाया करेंगे । 


बहुत समझाने के बाद आखिर विवेक नौकरी पर जाने के लिए तैयार हो गया । अपने करीबी दोस्तों को वो रोज़ ये ही कहता कि  मेरे जाने के बाद माँ-पिताजी का ख़याल रखना । आखिर उसके जाने का दिन आ गया उसे विदा करने दोनों बहने भी आईं । सभी लोग उसे स्टेशन पर छोड़ने गए । गाड़ी चल पड़ी पर माँ की हिदायतें ख़त्म नहीं हो रही थी - बेटा किसी का दिया कुछ मत खाना, वहां जाकर  खाना पकाने के लिए कोई रसोइया रख लेना, बाहर  का मत खाना आदि । थोड़ी ही देर में गाड़ी चल पड़ी । कुछ देर तो विवेक को ऐसा लगता रहा मानों उसका कुछ पीछे छूटा जा रहा है, पर रात होने तक धीरे-धीरे सब  सामान्य हो गया । 


सुबह गाड़ी से उतर कर सीधे  वह अपने दफ्तर के पते पर पहुँचा । उसे अगले दिन से काम पर आने को कह दिया गया साथ ही उसे बताया गया कि  सरकारी क्वार्टर के लिए उसे १५ दिन तक रुकना होगा । सारे काम निबटाकर वो टेलीफोन बूथ पर पहुँचा  और पिताजी से बात करने के लिए चमनलाल राशन वाले की दुकान पर फ़ोन मिलाया । पिताजी आजकल दुकान के आस-पास ही रहते, विवेक से बात करने की उत्सुकता जो थी । पिताजी को सारी  जानकारी देने के बाद विवेक अपने रहने के लिए सराय ढूंढने चला गया । दफ्तर के पास ही उसके रहने का बंदोबस्त हो गया । धीरे-धीरे सब कुछ सामान्य होता गया । रहने के लिए सरकारी क्वार्टर तथा खाने के लिए कैंटीन का बंदोबस्त हो गया । विवेक रोज़ ७ बजे पिताजी को फोन किया करता और तीन से चार महीने में घर पर जाकर उन्हें देख आया करता । 

धीरे-धीरे एक साल बीत गया । इधर गाँव में विवेक के लिए आए-दिन रिश्ते आते रहते । गोविन्द लाल जी उनमें से अच्छे रिश्ते छांटते और जब विवेक आता तो उसके साथ लड़की देख आते । बड़ी मुश्किल से उसे एक हफ्ते की छुट्टी मिलती और वो भी  माँ- पिताजी के साथ न बिताकर  लड़कियां देखने में निकल जाती । आख़िरकार उसने तय किया कि पिताजी और माता जी जिस लड़की को पसंद करेंगे वह उससे शादी कर लेगा । पिताजी अब और गहनता से लड़की देखने जाते ।

एक दिन वे पास के गाँव  में पहुंचे उन्हें किसी ने बताया था कि  जगदीश प्रसाद जी की बेटी  सुंदर और गुणी  है । जब वे जगदीश प्रसाद जी के घर पहुँचे तो उनकी खूब खातिरदारी की गई । गोविन्द लाल जी का मन किसी चीज़ में नहीं लग रहा था उन्हें तो बस लड़की देखनी थी । तभी एक साँवली सी लड़की ने चाय की ट्रे लेकर कमरे में प्रवेश किया । गोविन्द लाल जी ने देखा कि लड़की बहुत ही सीधी-सादी है और हमारे बेटे की तरह हमारा ख़याल रखेगी । उन्होंने जगदीश प्रसाद जी से कहा कि  मुझे तो बिंदिया (लड़की) पसंद है, विवेक ने ये काम हम पर छोड़ रखा है इसलिए आप लोग निश्चिन्त रहिए ये रिश्ता होकर रहेगा ।

विवेक को भी खबर दे दी गई और उस से आकर एक बार लड़की को देख जाने को कहा गया । उसे पंद्रह दिन बाद छुट्टी मिली । इस बार लड़की के घर पिताजी नहीं गए बल्कि विवेक और उसका एक दोस्त गया । आज घर में काफी चहल-पहल दिख रही थी, विवेक हर आहट पर कमरे से बाहर देखता, उसके मुख पर व्याकुलता साफ़ नज़र आ रही थी कि तभी तीखे नैन-नक्श वाली कोई लड़की दरवाज़े के सामने से गुज़री । विवेक  मन ही मन सोचने लगा - " पिताजी ने खूब परख के लड़की चुनी है ।" अभी वो ख्यालों में खोया ही था कि कमरे में चाय नाश्ते की ट्रे के साथ बिंदिया ने प्रवेश किया । विवेक अब भी ये ही सोच रहा था कि  शायद लड़की बाद में   आएगी । उसके विचारों पर तब तुषारापात हुआ जब  जगदीश प्रसाद जी ने कहा बेटे ये है हमारी बेटी बिंदिया, आप को यदि इस से कुछ पूछना हो तो पूछ लीजिये । विवेक ने इसे पिताजी और भाग्य की मर्ज़ी समझ कर न में सिर हिलाया और थोड़ी देर में  उन लोगों के घर से ये कहकर विदा ली कि मैं अपना जवाब घर पहुँचकर बता दूंगा ।  कमरे से बाहर  निकलते हुए भी विवेक की निगाहें उसी लड़की को ढूंढ रही थी ।

रास्ते भर वो इसी उधेड़ बून में लगा रहा कि क्या पिताजी से मन की बात कहकर उस लड़की का रिश्ता मांग लूँ ? पर घर आकर वो कुछ कहता इस से पहले ही पिताजी बोल उठे देखा, अच्छी लड़की पसंद की न तेरे लिए ? वो लड़की मुझे इतनी सीधी लगी जैसे तेरी माँ है, बस ! फिर मैंने कुछ नहीं सोचा । ऐसी लड़की तेरे साथ तेरे बूढ़े माँ बाप का भी ख़याल रखेगी वरना  आजकल की लड़कियां बस अपने पति और अपने बारे में सोचती हैं । पिताजी के ये ख्याल सुनकर विवेक ने अपने मन को संभाला और पिताजी से कहा कि उनके घर पर कहलवा दीजिये कि  हमें रिश्ता मंज़ूर है ।

घर पर शादी की तैयारियाँ ज़ोर-शोर से होने लगी । आखिर वो दिन भी आ गया, जब विवेक दूल्हा बन कर बिंदिया के घर बारात लेकर पहुँचा । ससुराल पक्ष ने बारात का स्वागत बड़ी अच्छी तरह से किया । विवेक अपने दोस्तों के बीच बैठा कुछ सोच रहा था कि तभी उनके पास जगदीश प्रसाद जी आए और हाथ जोड़कर बोले खाना लग गया है, आप लोगों की प्रतीक्षा हो रही है । विवेक और उसके दोस्त उनके साथ चल दिए । वे लोग एक बड़ी-सी मेज के सामने पहुँचे, जो विभिन्न प्रकार के व्यंजनों से भरी पड़ी थी । उस मेज के चारो तरफ दोनों पक्षों के करीबी लोग विराजमान थे । विवेक और उसके दोस्त भी आकर बैठ गए । वहीँ दोबारा से विवेक की नज़र उस लड़की पर पड़ी । इस बार वो खुद को रोक न सका और बिंदिया के भाई से पूछा  ये कौन है ? उसने बताया कि  ये हमारी चचेरी बहन है । विवेक अब कुछ नहीं कर सकता था इसलिए उसने बात को आगे न बढ़ाना ही उचित समझा ।  शादी की रस्में देर रात तक चली और सुबह बिंदिया विदा होकर विवेक के घर आ गई ।

बिंदिया का स्वाभाव वैसे तो बहुत अच्छा था पर वह गाँव में ज़्यादा दिन नहीं रहना चाहती थी, ये बात और थी कि वो खुद भी गाँव की ही रहने वाली थी । कुछ ही दिनों में विवेक की छुट्टियाँ ख़त्म हो गईं और वो जाने की तैयारियां करने लगा । शुरुआत में बिंदिया को लगा था कि विवेक उसे साथ ले जायेगा, इसलिए वो सास-ससुर के साथ अच्छे से रहती पर जब उसे पता चला कि  इस बार वो गुजरात नहीं जा रही है तो उसके मन में गुस्सा भरना शुरू हो गया । धीरे-धीरे उस गुस्से ने नफरत का रूप  ले लिया । उसे अपने सास ससुर की हर बात बुरी लगती । विवेक जब फोन करता तो उसे भी ये ही बताती कि यहाँ मेरे बारे में तो कोई सोचता ही नहीं । बेचारा विवेक जो सोचता था कि मेरी अनुपस्थिति में मेरी पत्नी मेरे माता-पिता का ध्यान रखेगी उसके मन को बहुत ठेस पहुँची । उसने सोचा कि रोज़-रोज़ की शिकायतों से अच्छा मैं बिंदिया को गुजरात ले आऊं ।  कुछ ही दिनों बाद वह गाँव आया और बिंदिया को ले गया ।

गुजरात का माहौल बिंदिया को स्वर्ग लोक सा लगा । अब तो उसे अपनी दुनिया में कोई और नहीं चाहिए था, बस वो और विवेक पर कुछ ही दिनों में उसे पता चला कि वो माँ बनने वाली है । जब ये खबर विवेक के माता-पिता को लगी तो वे तुरंत गुजरात आ पहुँचे । बिंदिया को ये बिल्कुल  अच्छा न लगा । खैर पिताजी तो दो दिन में ही लौट गए पर विवेक की माँ बिंदिया की देखभाल के लिए रुक गई । बिंदिया रोज़ विवेक के कान उसकी माँ के खिलाफ भरती । शुरुआत में तो विवेक ने ध्यान नहीं दिया पर धीरे-धीरे उसे भी माँ के कामों में कमीं नज़र आने लगी । और एक दिन उसने खुलकर माँ से कह दिया कि  गाँव में पिताजी परेशान  होंगे  इसलिए मैं आपको गाँव छोड़ आता हूँ । माँ को सब समझ में आ रहा था पर वो कुछ न बोली । समय बीतता गया और बिंदिया ने बेटी को जन्म दिया । सबने मिलकर उसका नाम युक्ति रखा ।  अब विवेक के जाने के बाद बिंदिया अपनी बेटी में लगी रहती । कहते हैं न कि  बेटियां जल्दी बड़ी होती हैं, ऐसे ही युक्ति काफी बड़ी हो गई । युक्ति को अपनी माँ के सारे गुण अच्छे लगते पर पिता की नसीहतें उसे हमेशा बुरी लगती । जब भी विवेक उसे कुछ समझाना चाहता वो नज़रअंदाज़ कर देती । विवेक इन्ही बातों को लेकर परेशान  रहने लगा ।


एक समय ऐसा आया कि विवेक की उपस्थिति भी माँ बेटी को खलने लगी । वो जब तक ऑफिस में रहता दोनों खुश रहती और उसके घर में आते ही किसी न किसी बात पर उस से झगड़ पड़ती और फिर मजबूरन विवेक को अपने कमरे में जाना पड़ता जहाँ उसे देखने वाला कोई न होता । वो हमेशा सोचता कि मैंने कहाँ गलती कर दी ? पर उसे कभी उत्तर न मिल पाता । उसका व्यव्हार इतना चिड़चिड़ा हो गया कि उसके दोस्त उस से बात करने में कतराने लगे । वो हमेशा मन में सोचता  मैं तो माँ पिताजी की पसंद की लड़की से ब्याह करके उनको खुश रखना चाहता था पर न तो माँ-पिताजी को ही खुश रख पाया, न पत्नी को, न बेटी को  और न खुद को । आज उम्र के अंतिम पड़ाव में वो बस ये ही सोचता है कि शायद जिस लड़की को मैंने पसंद किया था उसी से शादी करता तो ये सब न होता ।

दोस्तों विवेक को ऐसा क्यों लगा ?

 यहाँ मुझे विवेक से भी कुछ शिकायतें हैं । बिंदिया दूसरे घर से आई थी, यहाँ विवेक का ये कर्तव्य बनता था कि वो बिंदिया का अपने घर की अच्छी- बुरी सब बातों से परिचय करवाता । मैं गलत भी हो सकती हूँ, मुझे इस सम्बन्ध में आपकी राय का इंतज़ार रहेगा ।


- कविता गांग्यान






   








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Monday, 30 January 2017

Ek Kahaani

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एक थी सुजाता .......



सर्दियों की धूप  में बैठकर  सुजाता अक्सर स्वेटर बुना करती और अपने में खोई रहती पर आज कुछ ऐसा हुआ जिसने उसे फिर से तीस साल पीछे धकेल दिया । पड़ोस की शांति के यहाँ चौथी बेटी ने जन्म लिया था और दो दिन पहले ही शांति ने उसे बताया था कि यदि इस बार भी लड़की हुई तो मेरे ससुराल वाले मुझे मेरे घर छोड़ आएंगे । सुजाता स्वेटर बुनते हुए सोच रही थी कि बेचारी शांति पर क्या बीत रही होगी ? यही सोचते-सोचते न जाने कब वो अतीत में पहुँच गई ।


सुजाता बड़े अच्छे घर से थी । उसके जन्म के समय ही उसकी माता जी का निधन हो गया  था । पिता जी रमेश बाबू और घर के नौकरों ने बड़े प्यार से उसे पाला था, सयानी होने पर उसे पढ़ने के लिए शहर भेज दिया गया । पिताजी उसके लिए योग्य वर ढूंढ ही रहे थे कि किसी ने आकर उन्हें वीरेन के बारे में बताया । परिवार और लड़का पिताजी को एक नज़र में ही भा गए | फिर क्या था, चट मँगनी और पट ब्याह । सुजाता के  ब्याह में पिताजी ने इतना कुछ दिया कि ससुराल में सभी बहुत खुश थे । धीरे- धीरे समय बीतता गया और सुजाता माँ बनी ।  बेटी ने जन्म लिया था, पिताजी खबर पाते  ही गाड़ी-भर सामान के साथ बेटी के यहाँ पहुंचे, पर ये क्या  सबके मुँह  उतरे हुए थे । पिताजी ने काफी हंसी मज़ाक करके माहौल को  हल्का बनाने का प्रयास किया पर सब व्यर्थ था ।


खैर, बेटी से मिलकर वे चुपचाप वापस चले गए । अब वे बेटी के घर  किसी न किसी बहाने से सामान भेजने लगे,  उन्हें लगता था कि शायद ऐसा करने से उनकी बेटी ससुराल वालों के अत्याचारों से बची रहेगी । परिवार के बाकि सदस्य चाहे जो भी सोचें पर वीरेन  और सुजाता  अपनी बेटी  पर जान छिडकते और उन्होंने प्यार से उसका नाम संगीता रखा ।  वीरेन की बहन और माँ हमेशा कहतीं कि इस बार तो कोई बात नहीं पर अगली बार बेटा ही चाहिए । उनकी बात को वीरेन हंसी में टाल देता पर सुजाता सहम  जाती । पिछले कुछ दिनों से सुजाता को फिर ये एहसास होने लगा कि शायद वो दोबारा माँ बनने वाली है । उसने ये खबर अपनी सास को सुनाई और सास ने ससुर को, फिर क्या था ससुर ने एक फरमान जारी कर दिया कि अगर इस बार बेटी हुई तो सुजाता को उसके घर भेज दिया जाएगा । कुछ ही दिन बार भारतीय सीमा पर युद्ध के बादल मंडराने लगे और सुजाता के ससुर जो कि सिपाही थे, उनकी छुट्टी रद्द हो गई और  उन्हें सीमा से बुलावा आ गया । अपना सामान बांधते हुए उन्होंने सुजाता की तरफ देखा और उसकी सास से कहा कि अगर इसको इस बार लड़की हुई तो इसे इसके पिताजी के पास मैं छोड़कर आऊंगा ।


सुजाता बेचारी इतनी दुखी रहने लगी कि अब न उसे खाना- पीना अच्छा लगता और न किसी की हंसी-ठिठोली । वो बस इंतज़ार किये जा रही थी अपने बच्चे के दुनिया में आने का और अपनी ज़िन्दगी के फैसले का भी । आखिर वो दिन भी आ ही गया, सुबह से ही सुजाता दर्द से बेहाल थी मगर किसी ने उस पर ध्यान ही नहीं दिया । उधर वीरेन भी घर के काम से बाहर गया था । बेचारी बार- बार अपनी छोटी ननद से पूछती कि ये (वीरेन) कब तक आने लौटने वाले हैं, पर ननद उसे कोई भी ठीक उत्तर न देती । अंत में देर रात को उसने सुन्दर-सी कन्या को जन्म दिया । जैसे ही दाई ने लड़की नाम लिया घर की औरतें चुप हो गई और अपने अपने कामो में ऐसे लग गई जैसे कुछ हुआ ही न हो । सुबह वीरेन ने आकर सुजाता को कुछ खाने को दिया और उसे समझाने लगा कि कोई बात नहीं, मैं हूँ न,  सब ठीक हो जायेगा । 


घर का माहौल ऐसा था मानो घर में किसी का जन्म नहीं मौत हुई हो । सब इंतज़ार में थे कि जैसे ही सुजाता के ससुर आयेंगे उसे उसके घर छोड़ दिया जायगा । दोपहर का समय था डाकिया आया और नन्ही संगीता को बुलाकर एक चिठ्ठी पकडाते हुए बोला कि तुम्हारे पिताजी को दे देना । संगीता ने दौड़कर कमरे में बैठे पिताजी को चिठ्ठी थमाई और फिर अपने खेल में लग गई । विरेन ने जैसे ही चिठ्ठी खोली उसके हाथ कांपने लगे चिठ्ठी में पिताजी के युद्ध में शहीद होने की खबर थी । सारे घर में कोहराम मच गया । चारो तरफ रोना पीटना मच गया । घर में आने वाली सभी औरतें भी दबी ज़बान से सुजाता की छोटी बेटी को मनहूस कहने लगी । सुजाता इन आरोपों से दुखी हुई पर इससे ज्यादा उसे इस बात का संतोष था कि अब उसे घर छोड़कर नहीं जाना पड़ेगा ।


सुजाता के पिताजी भी खबर सुनकर उनके घर सांत्वना देने आ पहुंचे ये  देख कर उनके दुःख का ठिकाना न रहा कि उनकी फूल सी बेटी पर इतने अत्याचार किये जा रहे है । उन्होंने दबी ज़बान से विरेन से पूछा कि क्या ये ही दिन देखने के लिए मैंने तुमसे अपनी बेटी का ब्याह किया था ? विरेन जिसने आज तक अपनी विवशता सबसे छिपाई हुई थी वो रोते हुए कहने लगा पिताजी सुजाता की ज़िम्मेदारी मुझपर है पर मैं  बेरोजगार हूँ और चाहकर भी उसका साथ नहीं दे पाता । सुजाता के पिताजी भारी मन से घर वापस लौट गए और बेटी को इस समस्या से निकालने के लिए तरह-तरह के उपाय सोचने लगे ।


रमेश बाबू  होटल के मालिक थे और उनके होटल में बड़े बड़े लोगों का आना जाना था । इसी कारण उनकी दोस्ती फैक्ट्रियों में काम करने वाले बड़े अफसरों से भी हो गई थी । उन्होंने उन सब अफसरों से विरेन की नौकरी के लिए बात की और एक जगह बात जम गई । उन्होंने विरेन को बुलाकर उन अफसरों से मिलवाया और बस विरेन को नौकरी मिल गई । उसने पिताजी को धन्यवाद किया और घर पहुंचा । आते ही उसने अपनी माँ को खुश खबरी दी कमरे के अंदर से सुजाता ने भी ये खबर सुन ली और मारे ख़ुशी के वो भी झूमने लगी । अब सुजाता के जीवन में कुछ बदलाव दिखाई देने लगा । 


रमेश बाबू  को अब भी सुकून नहीं था वे  चाहते थे कि  उनकी बेटी जो पढ़ी लिखी वह भी कुछ काम करे और उसके जीवन में भी कुछ बदलाव आए । इसीलिए उन्होंने अपने एक रिश्तेदार से बात करके सुजाता को नर्सिंग की ट्रेनिंग करवा दी और जल्दी ही उसे भी नौकरी मिल गई । धीरे धीरे सुजाता और वीरेन के जीवन में सुधार आने लगा । पहले जो लोग उनकी बेटियों को मनहूस कहकर बुलाते थे आज वे ही बोलते नहीं थकते थे कि - वीरेन ये सब तेरी बेटियों के आने से हुआ है ये दोनों तो साक्षात लक्ष्मी हैं लक्ष्मी !

सुजाता अपने विचारों में डूबी स्वेटर बुने जा रही थी कि  अचानक संगीता ने आकर उसे हिलाया और चाय की प्याली थमाते हुए बोली माँ शांति आंटी के यहाँ गुड़िया आई है, चलो देखकर आते हैं । 


दोस्तों ये आज भी हमारे समाज का सच है, हम माने या न माने पर आज भी चाहे हमने कितनी ही तरक्की क्यों न कर ली हो पर बेटी के जन्म पर चाह कर भी लोगों के मुख पर वो मुस्कान नहीं दिखती जो बेटे के होने पर दिखाई देती है । पर ये भी सच है कि  बेटा एक बार को अपने माँ बाप को भूल सकता है पर बेटी दूसरे  परिवार में जाकर भी माँ की एक कराह को पहचान लेती है । इसलिए हमें दोनों की परवरिश अच्छी तरह करनी चाहिए ताकि बाद में हमें कोई अफ़सोस न हो । 

आपकी इस विषय पर क्या राय है ? ये जानने का मुझे इंतज़ार रहेगा । 



धन्यवाद । 

कविता गांग्यान 






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