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Friday, 16 December 2016

Meetha Ehsaas - Ek Kahani

                                           

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 रेनकोट 


कल जब मैं अपने विद्यालय से वापस घर लौट रही थी, तब मेरी नज़र सिग्नल पर खड़े एक बच्चे पर पड़ी । करीब आठ साल का रहा होगा, तेज़ बारिश में वह लोगों को फूल बेच रहा था । मैं सोच रही थी कि  हम लोग कितने खुशकिस्मत हैं कि  हमारे बच्चे आराम से स्कूल जाते हैं, जो मांगते हैं उनके मुँह खोलने से पहले लाकर देना हम अपना कर्तव्य समझते हैं । सिग्नल हरा हुआ और मैं आगे निकल गई, पर उस छोटे से बच्चे को अपने दिमाग से  न निकाल पाई ।


घर पहुँचकर चाय बनाई और खिड़की से बाहर देखा तो पाया कि बारिश पहले से भी तेज़ हो रही थी । अब मैं उस बच्चे को लेकर चिंतित होने लगी, हों भी क्यों न ? आखिर मैं भी माँ हूँ । मैं सोचने लगी कि मैं उस बच्चे की मदद कैसे कर सकती हूँ । पैसे देकर ..... शायद ये रास्ता ठीक नहीं होगा । फिर मैंने घर में रखा पुराना रेनकोट और कुछ कपड़े  अलमारी से निकलने शुरु  किये ।  उन्हें एक बैग में रखा और सोचा कि कल स्कूल से लौटते समय उसे दे दूँगी ।


अगले दिन याद से मैंने वो बैग लिया और गाड़ी में रख दिया । आज न जाने क्यों स्कूल में मेरा मन नहीं लग रहा   था । मुझे घर जाने की बहुत जल्दी थी । जैसे ही मैं सिग्नल पर पहुँची मैंने इधर -उधर नज़र दौड़ाई पर वो कहीं दिखाई न दिया । मैं बहुत मायूस हो गई और घर वापस लौट आई । आज मन में नए ख़यालों ने जन्म लिया कि क्या हुआ होगा ? वो सिग्नल पर क्यों नहीं था ? कहीं कल बारिश में भीगकर बीमार तो नहीं हो गया होगा ? खैर, अब कर भी क्या सकती थी, बैग को गाड़ी में रखा और सोचा आज नहीं तो कल वो ज़रूर मिलेगा तब दे दूँगी ।


धीरे-धीरे एक सप्ताह बीत गया, पर उसका पता न चला । अब मेरे मन में उसके विचारों का आना कुछ कम हो गया था कि अचानक आज फिर सिग्नल पर वो मेरी गाड़ी के पास आकर रुक गया । उसे देखकर मैं इतनी खुश हो गई जैसे न जाने मुझे क्या मिल गया हो ! मैंने गाड़ी के पीछे की सीट से बैग उठाया और उसे देकर बोली -      " रेनकोट है, पहन लेना "। वो मुझे ऐसे देखता रहा मनो मैंने उसे कोई मनचाही वस्तु दे दी हो । वो कुछ बोलना चाहता था, पर न जाने क्यों कुछ कह नहीं पाया । मैं इंतज़ार कर रही थी कि  वो कुछ तो कहे पर तभी मैंने महसूस किया कि सिग्नल हरा हो गया है और पीछे की गाड़ियां हॉर्न बजा  रही थीं । मैंने उसे हल्की-सी मुस्कान दी  और आगे निकल गई ।


अब अधिकतर वो मुझे  सिग्नल पर मिलता है । गाड़ी के पास आता है, फूल बेचने नहीं अपनी मीठी-सी  मुस्कान देने । मैं भी अपने बेटे की किताबें और खिलौने उसे दे दिया करती हूँ । इसलिए नहीं कि मुझे उन चीज़ों की ज़रुरत नहीं, बल्कि इस लिए कि उस नन्हे से बच्चे की मुस्कान मुझे ताज़गी का एहसास करती है ।


पाठकों से अनुरोध है कि मेरे इस विचार पर अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दें और हो सके तो अपने बच्चों के खिलौने , किताबें, कपडे आदि को फेंककर बर्बाद न करें । ये चीज़े किसी के लिए उतनी ही आवश्यक हैं जितनी कि हमारे लिए हमारे बच्चों की मुस्कान ।


-  कविता गाँग्यान

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2 comments:

  1. Wow!!! Nice idea, Keep up the good work!👍

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  2. Heart touching story. Excellent message to all of us

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