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Monday, 19 December 2016


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ढेरों बधाइयाँ !!!      


कुछ भी कहने से पहले मैं अपने विद्यालय की प्रधानाचार्या श्रीमती कविता सांघवी जी को दिल से बधाइयाँ देना चाहूँगी। उन्हें ग्लोबल टीचर अवार्ड के लिए चुना गया और उससे भी अधिक वे पूरे भारत की एकमात्र ऐसी शिक्षिका बन गई जिसका नामांकन इस अवार्ड के लिए किया गया है । 

उनके शिक्षण के बारे में क्या कहूँ ? उन्होंने एक शिक्षक की परिभाषा को ही बदल कर रख दिया है । एक साधारण शिक्षक जहाँ सिर्फ ये सोचता है कि कैसे वो अपनी कक्षा का पाठ्यक्रम पूरा करे वहीँ कविता जी ये सोचती हैं कि मैं ऐसा कौन-सा तरीक़ा अपनाऊँ कि छात्रों  को ज़्यादा से ज़्यादा समझ में आए । ये उनकी लगन और परिश्रम का ही परिणाम है कि वे आज उस मुकाम पर हैं जहाँ जाना हर किसी के लिए संभव नहीं । 

मुझे  पिछले पांच सालों से उनका सानिध्य प्राप्त है और मुझे यह कहते हुए बहुत गर्व महसूस होता है कि मैंने उनसे बहुत कुछ सीखा है। हालांकि वे भौतिक शास्त्र की शिक्षिका हैं और मैं हिंदी की, पर यह भी सत्य है कि सीखने की न कोई उम्र होती है और न भाषा । वे अपनी कक्षा में इतनी सारी गतिविधियां करवाती हैं कि छात्रों की विषय में रुचि बढ़ती जाती है । उनके शिक्षण का सिद्धान्त है - करके सीखना जिसके लिए वे छात्रों को लैबोरेट्री  में ले जाकर तरह- तरह के प्रयोग करवाती रहती हैं । उन्हें इस तरह काम करते हुए देखकर हम सभी को प्रेरणा मिलती है और हम पूरे जोश और तैयारी के साथ अपनी कक्षाओं में पढ़ाने जाते हैं । 

जिसप्रकार एक पौधा सिर्फ जल देने भर से फल-फूल नहीं सकता  उसे पर्याप्त हवा, धूप और खाद आदि की भी ज़रुरत है उसी प्रकार एक छात्र को केवल किताबी शिक्षा देना ही शिक्षक का उद्देश्य नहीं होना चाहिए बल्कि खेलकूद, कला, नाच-गाना, नाटक  मंचन, समसामायिक विषयों आदि को भी बढ़ावा देकर  उसके सर्वांगीण विकास का  ध्यान रखना भी आवश्यक है । ये मूल मंत्र  हमें  कविता सांघवी जी ने दिया । 

पर्यावरण संरक्षण को लेकर भी उनकी संवेदनाएँ किसी से छिपी नहीं हैं । चाहे समुद्र तट की सफाई की मुहिम हो या विद्यालय का ग्रीन मेला उनके जोश को देखकर सभी छात्र जोश से भर जाते हैं और लोगों को पर्यावरण को स्वच्छ रखने के लिए प्रेरित करते हैं । 

उनके लिए जितना लिखा जाए उतना कम है । इसलिए बस ये ही कहना चाहूँगी -




            आपकी सफलता के आसमान में हर रोज़ एक नया सितारा जुड़ता जाए,          
            और एक दिन ऐसा आए कि उनकी रोशनी देखकर चाँद भी शरमा  जाए । 


अंत में इस यकीन के साथ कि जीत आपकी ही होगी, आपको ढेरों शुभकामनाएँ !
  

- कविता गाँग्यान 





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Friday, 16 December 2016

Ek Kahaani


गलती किसकी ?



राघव को गए आज पूरा एक साल हो गया । आज उसकी बरसी पर बहुत सारे  रिश्तेदार उसके घर आए हैं । राघव केवल पंद्रह वर्ष का था जब एक दुर्घटना  में उसकी मृत्यु हो गई । सभी लोग बैठकर एक वर्ष पहले हुई घटना पर चर्चा कर रहे थे । 

हुआ यूँ था, कि जिस दिन राघव का परीक्षाफल मिला, वह अपने अच्छे अंकों की दुहाई देकर अपने पिताजी से एक दिन के लिए मोटर साइकिल माँगने लगा । पिताजी ने पहले तो बड़ी ना-नुकर की पर फिर माताजी की सहमति को देखते हुए उन्होंने भी हाँ कर दी और दे दी चाबी राघव को पूरे दिन के लिए । फिर क्या था ? उसे लगा कि वह एक दिन का शहंशाह बन गया । उसने बाइक उठाई और गली में शान दिखाता और तेज़ स्पीड से चलाता घूमने लगा । 

इससे पहले उसने अपने दोस्तों की ही बाइक चलाई थी, वो भी कुछ देर के लिए इसलिए वह बाइक चलाना अच्छी तरह से नहीं जानता था । तभी अचानक एक कठिन मोड़ पर सामने से गुज़रती बस को देखकर  वह संभल न सका और बाइक समेत बस के पिछले पहिये के नीचे आ गया । 

घरवालों को जैसे ही ख़बर मिली, वे भागते हुए आए, तब तक कुछ लोगों ने बस ड्राइवर को पीट-पीट कर अधमरा कर दिया था । माँ- बाप भी आकर अपने बच्चे का मृत शरीर देखकर ड्राइवर को कोसने लगे । उस बेचारे ने लाख समझाया कि मैं तो सीधा जा रहा था, मगर किसी ने उसकी एक न सुनी । सभी आस-पास खड़े लोगों ने इसे भाग्य की विडम्बना कहकर बात को समाप्त करने की कोशिश की । माँ- बाप रोते-बिलखते रहे । राघव एक होनहार लड़का था । उन्हें आस  थी कि हमारा बेटा बड़ा होकर हमारे बुढ़ापे का सहारा बनेगा, मगर  आँसुओं में सब बह रहा था । इसी तरह एक साल बीत गया । 


मेरा सवाल सभी पाठकों से है कि गलती किसकी थी ?

  • ड्राइवर की, जो अपने रास्ते पर जा रहा था ?

  • राघव की, जो अभी इतना बड़ा नहीं हुआ था कि अपना अच्छा- बुरा समझ सके ?

           या 

  • माता-पिता की, जो जानते थे कि राघव को बाइक चलाना नहीं आता, पर वे उसके प्यार में विवश थे ?

आज अगर हम ये जान पाएँ कि गलती किसकी थी तो शायद आने वाले समय में हम कुछ राघवों को बचा   पाएँगे । 

-  कविता गाँग्यान 













पर्यावरण बचाओ 

कुछ समय पहले यह कविता मैंने अपने विद्यालय में हो रहे पर्यावरण संरक्षण कार्यक्रम के लिए लिखी थी । 


Meetha Ehsaas - Ek Kahani

                                           

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 रेनकोट 


कल जब मैं अपने विद्यालय से वापस घर लौट रही थी, तब मेरी नज़र सिग्नल पर खड़े एक बच्चे पर पड़ी । करीब आठ साल का रहा होगा, तेज़ बारिश में वह लोगों को फूल बेच रहा था । मैं सोच रही थी कि  हम लोग कितने खुशकिस्मत हैं कि  हमारे बच्चे आराम से स्कूल जाते हैं, जो मांगते हैं उनके मुँह खोलने से पहले लाकर देना हम अपना कर्तव्य समझते हैं । सिग्नल हरा हुआ और मैं आगे निकल गई, पर उस छोटे से बच्चे को अपने दिमाग से  न निकाल पाई ।


घर पहुँचकर चाय बनाई और खिड़की से बाहर देखा तो पाया कि बारिश पहले से भी तेज़ हो रही थी । अब मैं उस बच्चे को लेकर चिंतित होने लगी, हों भी क्यों न ? आखिर मैं भी माँ हूँ । मैं सोचने लगी कि मैं उस बच्चे की मदद कैसे कर सकती हूँ । पैसे देकर ..... शायद ये रास्ता ठीक नहीं होगा । फिर मैंने घर में रखा पुराना रेनकोट और कुछ कपड़े  अलमारी से निकलने शुरु  किये ।  उन्हें एक बैग में रखा और सोचा कि कल स्कूल से लौटते समय उसे दे दूँगी ।


अगले दिन याद से मैंने वो बैग लिया और गाड़ी में रख दिया । आज न जाने क्यों स्कूल में मेरा मन नहीं लग रहा   था । मुझे घर जाने की बहुत जल्दी थी । जैसे ही मैं सिग्नल पर पहुँची मैंने इधर -उधर नज़र दौड़ाई पर वो कहीं दिखाई न दिया । मैं बहुत मायूस हो गई और घर वापस लौट आई । आज मन में नए ख़यालों ने जन्म लिया कि क्या हुआ होगा ? वो सिग्नल पर क्यों नहीं था ? कहीं कल बारिश में भीगकर बीमार तो नहीं हो गया होगा ? खैर, अब कर भी क्या सकती थी, बैग को गाड़ी में रखा और सोचा आज नहीं तो कल वो ज़रूर मिलेगा तब दे दूँगी ।


धीरे-धीरे एक सप्ताह बीत गया, पर उसका पता न चला । अब मेरे मन में उसके विचारों का आना कुछ कम हो गया था कि अचानक आज फिर सिग्नल पर वो मेरी गाड़ी के पास आकर रुक गया । उसे देखकर मैं इतनी खुश हो गई जैसे न जाने मुझे क्या मिल गया हो ! मैंने गाड़ी के पीछे की सीट से बैग उठाया और उसे देकर बोली -      " रेनकोट है, पहन लेना "। वो मुझे ऐसे देखता रहा मनो मैंने उसे कोई मनचाही वस्तु दे दी हो । वो कुछ बोलना चाहता था, पर न जाने क्यों कुछ कह नहीं पाया । मैं इंतज़ार कर रही थी कि  वो कुछ तो कहे पर तभी मैंने महसूस किया कि सिग्नल हरा हो गया है और पीछे की गाड़ियां हॉर्न बजा  रही थीं । मैंने उसे हल्की-सी मुस्कान दी  और आगे निकल गई ।


अब अधिकतर वो मुझे  सिग्नल पर मिलता है । गाड़ी के पास आता है, फूल बेचने नहीं अपनी मीठी-सी  मुस्कान देने । मैं भी अपने बेटे की किताबें और खिलौने उसे दे दिया करती हूँ । इसलिए नहीं कि मुझे उन चीज़ों की ज़रुरत नहीं, बल्कि इस लिए कि उस नन्हे से बच्चे की मुस्कान मुझे ताज़गी का एहसास करती है ।


पाठकों से अनुरोध है कि मेरे इस विचार पर अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दें और हो सके तो अपने बच्चों के खिलौने , किताबें, कपडे आदि को फेंककर बर्बाद न करें । ये चीज़े किसी के लिए उतनी ही आवश्यक हैं जितनी कि हमारे लिए हमारे बच्चों की मुस्कान ।


-  कविता गाँग्यान

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